हर दिन, हर पल करती हूं यज्ञ मैं , हवन - कुण्ड में तेरी यादों की आहुतियां डाल कर ।
आंसुओं का डाला घी , तन को जलाया हवन - कुण्ड की लकड़ी बना कर ।
जो की थी तुमने मुझसे वो प्यार भरी बातें , तेरे उन शब्दों को बनाया मंत्र मैंने ।
बढ़ी जब त्रिशनगी शबे- हिज्रा में तो तारे भी नज़र आने लगे हवन की जलती लपटों से ।
भड़की जो ज्वाला तेरी यादों की , छुअन तुम्हारी का एहसास दिला कर , स्वाहा कर गई मुझे ।
तुम्हारे प्रेम सुधा रस का प्यासा हृदय , चाह इन अधरों को तुम्हारे अधरों का चरणामृत पीने
की , बना लो जो अपने प्यार के हवन -कुंड की समिधा , यज्ञ की पूर्णाहुति से मिल जाए चिर शांति धधक कर तुम्हारे प्यार की आहुति में हो जाऊं स्वाहा ।चुप रह कर ही मोहब्बत निभाई मैंने जला कर अपने मन को हवन कुण्ड में ,
बस और ना अब सहन होगा , लगता है खुद ही जल जाऊंगी मैं इस हवन कुण्ड में , तब होगा संपूर्ण यज्ञ मेरे प्यार का ।
मौलिक एवं स्वरचित
प्रेम बजाज, जगाधरी ( यमुनानगर )

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