*काव्य मंचों के वटवृक्ष थे बाबा निर्भय हाथरसी-ऋषि कुमार शर्मा कवि एवं लेखक*
(दिनांक 28 जुलाई को उनकी पुण्यतिथि पर प्रस्तुत लेख)
"प्रख्यात कवि निर्भय हाथरसी की कर्मभूमि हाथरस साहित्य संगीत एवं कला की उर्वरा धरती के रूप में पूरे विश्व में विख्यात है। काव्य मंचों के वटवृक्ष के रूप में पूरे भारतवर्ष में अपनी अलग ही पहचान रखने वाले हाथरस के दिल्ली वाला चौक इलाके जो अब निर्भय नगर के रूप में जाना जाता है के निवासी बाबा हाथरसी का जन्म देवोत्थान एकादशी के दिन सन 1926 में मथुरा के एदलपुर ग्राम में अपनी ननिहाल में हुआ था। किंतु उनकी कर्मभूमि हाथरस ही रही।
बाबा निर्भय हाथरसी का मूल नाम देवीदास शर्मा था तथा इनके पिता गणेशी लाल सिद्धहस्त कवि एवं माता काशी शायरा के रूप में जानी जाती थी। इस प्रकार कविता का अंकुर इनके अंदर जन्म से ही था। उन्होंने 8 वर्ष की आयु में ही कविताएं लिखनी प्रारंभ कर दी थी। बाबा ने हिंदी में स्नातकोत्तर तक की शिक्षा ग्रहण की थी।
निर्भय हाथरसी केवल कवि ही नहीं एक पत्रकार एवं राजनीतिज्ञ के रूप में भी अपनी पहचान रखते थे। उन्होंने कई समाचार पत्र प्रकाशित किए तथा कई चुनावों में भी अपना हाथ आजमाया हालांकि वह कभी चुनाव जीत नहीं सके।
निर्भय हाथरसी जी ने 200 से अधिक काव्य संग्रह प्रकाशित कराए उनकी प्रमुख कृतियों में जय जय बजरंगी, हर हर महादेव, राम मंदिर आंदोलन में देशभर में गूंजती थी। श्रृंगार, शतक, पंजाब की धरती,एवं खालिस्तान ना मांगो उनकी प्रमुख कृतियों में गिनी जाती हैं।
बाबा निर्भय हाथरसी का राष्ट्रीय काव्य मंचों पर अपना अलग ही प्रभाव और दबदबा था। वे सदैव गेरुए कुर्ते और लुंगी को ही धारण करते थे। उनकी श्वेत और लंबी दाढ़ी उनके व्यक्तित्व को अलग ही पहचान और रंग देते थे।
बाबा निर्भय हाथरसी ने कभी सोचकर कोई कविता नहीं पढी़ । माइक पकड़ते ही जो भी उनके मन में आता वह धाराप्रवाह में कई कई घंटों तक उनकी कविता के रूप में सैकड़ों की संख्या में उपस्थित श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करता रहता था। उनकी दमदार और गर्ज दार आवाज के हजारों दीवाने थे। निर्भय हाथरसी जी जब ओज की कविता सुनाने खड़े होते थे तो लोगों के दिल दहल जाते थे। ओज के महाकवि होने के साथ ही साथ वह हास्य और व्यंग में भी अपना जवाब नहीं रखते थे। एक आशु कवि के रूप में तो उनकी अलग ही विशिष्ट पहचान थी। उनकी हाजिर जवाबी के सभी कायल हो जाते थे। उनकी कविताओं का क्षेत्र बहुआयामी था और वे कविताओं के सिद्धहस्त रचनाकार थे। उन्होंने कई उर्दू की गजलें भी लिखी थी। लोग उन्हें निर्भयानंद भी कहा करते थे। अपने कृतित्व से जो हिंदी की सेवा बाबा निर्भयानंद ने की वह अप्रतिम है।
बाबा निर्भय हाथरसी की एक लंबी रचना-- इंदिरा मैया रोटी दे छोटी दे या मोटी दे ।
अनेक काव्य मंचों पर बहुत प्रसिद्ध हुई थी जिसकी प्रस्तुति उन्होंने नई दिल्ली मैं तो की ही सन 1981 में जब बदायूं उत्तर प्रदेश में वह इस रचना का मंच से काव्य पाठ कर रहे थे तो मंच पर उपस्थित मुख्य अतिथि एक मंत्री महोदय और उनके सहयोगियों ने मंच को तहस-नहस करने के साथ ही उन पर हमला भी किया। किंतु निर्भयानंद तो निर्भयानंद ही थे उन्होंने घोषणा की कि वह पुनः जल्दी ही बदायूं में मंच से इसी कविता का पाठ करेंगे। और उन्होंने कविता पढ़ी ---- इंदिरा मैया रोटी ले छोटी ले या मोटी ले।
ऐसे थे बाबा निर्भय हाथरसी।
बाबा की स्पष्ट वादिता एवं व्यंगात्मक शैली के कारण उनके लंबे काव्य जीवन में प्रसिद्धि तो अपार मिली किंतु कभी उन्हें किसी पुरस्कार के योग्य नहीं समझा गया। यह एक विडंबना नहीं तो क्या है। किंतु उन्होंने इसकी कभी परवाह नहीं करी और वह कहते रहे मैं कभी बाल की खाल निकालना नहीं छोडूंगा। बाबा तंत्र विद्या के भी अच्छे जानकार थे। उनकी वृद्धावस्था में भी उनकी दमदार आवाज का अलग ही प्रभाव था।
सन 1998 में 28 जुलाई को उन्होंने अपने नश्वर शरीर को त्याग दिया किंतु उनका व्यक्तित्व और कृतित्व लोगों के हृदय में सदैव विद्यमान रहेगा और अलख जगाता रहेगा।
बाबा निर्भय हाथरसी जैसा हिंदी का सेवक ना पहले कभी हुआ ना कभी होगा। वह अपने आप में एक अलग ही व्यक्तित्व रखते थे जिन्होंने जीवन भर कभी चाटुकारिता नहीं करी और सच्चे अर्थों में एक साहित्यकार के धर्म को निभाया। उनकी स्मृतियों को कोटि-कोटि नमन।
----------ऋषि कुमार शर्मा कवि एवं लेखक।
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