औरैया में आंगनवाड़ी केंद्रों पर बच्चो को करवाया अन्नप्राशन,फिर देखिये बच्चों ने क्या किया.....


11 माह बाद आंगनबाड़ी केंद्रों पर लौटी रौनक
छह माह पूर्ण कर चुके बच्चों   का करवाया अन्नप्राशन
छह  माह बाद ऊपरी आहार से बच्चे का होता है सर्वांगीण विकास
गर्भावस्था से ही पौष्टिक आहार की दी गई सलाह
उत्तर प्रदेश न्यूज21संवाददाता
औरैया:कोरोना काल के चलते करीब 11 माह से बंद रहे आंगनबाड़ी केंद्र  अब खुल गए है। केंद्र खुलने से अब महिलाएं व बच्चे आने लगे हैं। जन्म के बाद छह  माह पूर्ण कर चुके नौनिहालों को मंगलवार को अछल्दा ब्लाक के ग्राम पंचायत औतों में स्थित आंगनवाड़ी केंद्र पर अन्नप्राशन करवाया गया। अन्नप्राशन करवाते समय कोविड प्रोटोकॉल का पूर्ण रूप से ध्यान रखा गया। इस दौरान कार्यक्रम की आयोजक आंगनवाडी कार्यकर्ता  सुमन चतुर्वेदी ने धात्री माताओं को अपने बच्चों को कुपोषण से बचाने के लिए  ऊपरी आहार देने की जानकारी दी। 
विद्यालय औतों के प्रभारी  प्रधानाध्यापक लोकेश शुक्ला के द्वारा छह  माह पूरे कर चुकी बच्ची शुभांशी को खीर खिलाकर अन्नप्राशन उत्सव का शुभारंभ किया गया। उन्होंने अन्नप्राशन कार्यक्रम के संबंध में बताया कि ऊपरी आहार से बच्चे का शारीरिक व मानसिक विकास तेजी से होता है। उन्होंने कहा कि धात्री महिलाओ को भी पूरक पोषाहार लेना चाहिए। इससे बच्चा कुपोषण से बच जाता है। उन्होंने बच्चों में होने वाली बीमारियों व उसके बचाव के बारे में भी बताया। 
आंगनवाडी कार्यकर्ता  सुमन चतुर्वेदी ने  मां के दूध के साथ पूरक आहार, माता के उचित आहार, खिलाने के तरीके, साफ-सफाई पर ध्यान आदि के बारे में  जानकारी दी। पौष्टिक भोजन की प्रदर्शनी भी लगी। इस मौके पर सहायिका माधुरी देवी सहित गांव की महिलाएं उपस्थित रहीं। 
जैसा खाते अन्न, वैसा होता है मन
एक बहुत ही प्रचलित कहावत है कि ‘जैसा खाएं अन्न वैसा होगा मन’ यानि हम जिस प्रकार का अन्न (भोजन) ग्रहण करते हैं हमारे विचार, व्यवहार भी उसी प्रकार का हो जाता है। हिंदू धर्म के सोलह संस्कारों में अन्नप्राशन संस्कार का भी खास महत्व है। मान्यता है कि छह मास तक शिशु माता के दूध  पर ही निर्भर रहता है लेकिन इसके पश्चात उसे अन्न ग्रहण करवाया जाता है ताकि उसका पोषण और भी अच्छे से हो सके। शिशु को पहली बार माता के दूध  के अलावा  अन्न आदि खिलाये  जाने की क्रिया को अन्नप्राशन कहा जाता है। 
अन्नप्राशन संस्कार का महत्व
“अन्नाशनान्मातृगर्भे मलाशाद्यपि शुद्धयति” इसका अर्थ है कि माता के गर्भ में रहते हुए जातक में मलिन भोजन के जो दोष आते हैं उनके निदान व शिशु के सुपोषण हेतु शुद्ध भोजन करवाया जाना चाहिए। छह माह तक माता का दूध ही शिशु के लिये सबसे बेहतर भोजन होता है। इसके पश्चात उसे अन्न ग्रहण करवाना चाहिए। इसलिए अन्नप्राशन संस्कार का बहुत अधिक महत्व है | कहा भी गया है कि “आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिरू”। अन्न के महत्व को व्याख्यायित करने वाली एक कथा का वर्णन भी धार्मिक ग्रंथों में मिलती है।

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