कितना कुछ सहजते रहते है हम पूरी ज़िंदगी तनतोड़ मेहनत करके। अपनों के लिए आने वाली पीढ़ी के लिए।
जिनको हम अपने कहते है उनकी सही पहचान उस वक्त होती है जब उम्र के आख़री पड़ाव में एक छोटा सा अंतर बिस्तर से लेकर बाथरुम तक तय करने में असमर्थ होते है।
बचपन के छोटे से डायपर से निकलकर बुढ़ापे में बड़े डायपर में प्रवेश करते पड़े रहते है नि:सहाय की कोई आए और डायपर बदल दें। हमारे भीतर कुछ नहीं बदलता सिवाय डायपर का नाप। पर घरवालों के भीतर बहुत कुछ बदल जाता है तब पलकों की कोर ही गीली नहीं होती तकिया चद्दर और बिस्तर सब गीला होता है।
बुढ़ा पेड़ किसीको नहीं पसंद फल-फूल देने वाले हरे-भरे नवपल्लवित पेड़ को हर कोई पानी सिंचता है। बुढ़ापे में हाथ पैर क्षीण होते ही हालत पुराने कबाड़ सी हो जाती है। उस वक्त सहजी हुई अस्क्यामत बैंक बेलेंस या दस्तावेज किसी कामके नहीं होते। बाथरूम में लगवाए किंमती कमोड, नल, टाइल्स या एक भी चीज़ बिस्तर तक नहीं आएगी। लाचार नज़रें संजोये हुए सरमाये को देखती रहेगी। उठकर कहीं पहुँच पाए वो लक्ज़री नहीं मिलेगी। ना देह में इतनी शक्ति और नाहि कोई चौबीसों घंटे आपकी जीहुज़ूरी करेगा। जब कुछ भी हमारे बस में नहीं होगा बेबस पड़े होंगे तब कसौटी है अपनों की। हल्की आवाज़ में बुलाने पर जवानी के अच्छे दिनों में जो लोग हाथ में चाय और चेहरे पर मुस्कान के साथ दौड़े चले आते थे वही दो लोग बैडपेन लेकर दौड़ते आकर होंठों पर हंसी के साथ पूछे कहिए क्या चाहिए तो समझ लेना पूरी ज़िंदगी जिनके लिए दौड़ दौड़कर धन इकट्ठा करते रहे वो सार्थक रहा। मान लेना इन्वेस्टमेंट सही जगह पर हुआ है। वैसे बहुत कम लोग एसे नसीब वाले होते है जिनका बुढ़ापा अपनों की सेवा लेते गुज़रता हो। कहते है संस्कारों की बात है बच्चों को अच्छे संस्कार देंगे तो परिवार की महत्ता समझेंगे। पर आजकल की पीढ़ी के ज़्यादातर लोग स्वार्थी होते जा रहे है। तो अपना बुढ़ापा अगर सुखमय बिताना है तो सबकुछ अपनों में मत बाँट दो जमा की हुई पूंजी में से कुछ हिस्सा अपने नाम पर रख लों ताकि अपने सुख और सेवा के लिए खर्च कर सकों।
अगर कुछ लोगों का इन्वेस्टमेंट सही होता तो वृद्धाश्रम जैसे कलंक समाज में जन्म ही नहीं लेते।
(भावना ठाकर, बेंगुलूरु)

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