बंद पिंजरे में फड़फड़ाते रहते हैं मेरे पंख , निहारते रहते हैं
आसमां को सूनी निगाहों से , होकर के सोने के पिंजरे में कैद
फड़फड़ाती रहती हूं, दाना है , पानी है , हवा है , लेकिन
आज़ादी को तरसते रहते हैं मेरे पंख ।
थी मैं बगिया की उन्मुक्त चिड़िया , उड़ती फिरती डाल- डाल थी ,
आवारा, बेपरवाह, मस्तमौला सी ,सपनों की उड़ती सदा उड़ान थी ।
किया कैद एक सैयाद ने , घुट - घुट कर जीने को मजबूर किया ,
बस कैद हो कर रह गई मैं मान और मर्यादा में ही , देखती हूं आसमान
पर उड़ते पंछियों को , रह जाती हूं फड़फड़ा कर के मैं भी ।
लेकिन मन की उड़ान को कैसे रोकूं , मन का पंछी उड़ता जाए ,
तन का पंछी उड़ने को आतुर , बंद पिंजरे में बैठा पंख अपने फड़फड़ाए ।
पर अब मैंने भी ये ठाना है , नहीं और फड़फड़ाना है , तोड़ कर के पिंजरा
खुले आकाश में उड़ जाना है , सपनों को साकार बनाना है , हां अब
मुझे भी कुछ कर के दिखाना है , अपनी मंजिल को पाना है ।
मौलिक एवं स्वरचित
प्रेम बजाज, जगाधरी ( यमुनानगर )

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